कैसे काम करते हैं जासूस भारत और पाकिस्तान के जासूस?PC:mahi
पाकिस्तान में एक भारतीय को पकड़ा गया है जिस पर रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) का जासूस होने का आरोप है। पाकिस्तान से आ रही ख़बरों के मुताबिक़ इस शख़्स को तब गिरफ़्तार किया गया जब वह मोबाइल फ़ोन पर अपने परिवार वालों से मराठी में बात कर रहा था। निसंदेह, पाकिस्तान से भारत को होने वाले फ़ोन कॉल्स पर कड़ी निगरानी रखी जाती है और इसलिए इस शख़्स को पकड़ा जा सका। उसके पास भारतीय पासपोर्ट भी बरामद हुआ। ये बिल्कुल अलग तरह का जासूस दिखता है, क्योंकि हम जिस तरह के जासूस फ़िल्मों में देखते हैं, उनके पास तो नकली पासपोर्ट होता है और वह काफी प्रशिक्षित भी होते हैं। अगर गिरफ़्तार व्यक्ति रॉ का एजेंट निकलता है, तो मुझे काफ़ी अचरज होगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि रॉ, सीआईए, मोसाद और आईएसआई जैसी खुफिया एजेंसियों के एजेंट तो आम तौर पर राजनयिक पासपोर्ट के साथ दूतावासों में तैनात होते हैं। मैंने कहीं पढ़ा है कि मौजूदा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ऐसी ही एक पोस्टिंग के तहत पाकिस्तान में तैनात थे। हालांकि जहां तक मेरी जानकारी है वे इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) में थे, ना कि रॉ में।

आईबी आतंरिक ख़ुफ़िया एजेंसी है, जिसका काम भारतीयों पर नज़र रखना है। अगर आप और विनम्रता से कहना चाहते हैं तो ये एजेंसी भारत में होने वाली गतिविधियों पर नज़र रखती है। अगर डोभाल आईबी में थे तो वे पाकिस्तान में क्या कर रहे थे? वैसे भी इन दोनों ख़ुफ़िया एजेंसियों की गतिविधियों के बारे में हमें जो जानकारी है, वो सिर्फ़ अफ़वाहों से ही मिलती है, वो तथ्यों पर आधारित नहीं होती।
कई बार तो रॉ के प्रमुख को भी ये नहीं मालूम होता है कि एजेंसी के अंदर क्या चल रहा है। दस साल पहले, आउटलुक पत्रिका ने रिपोर्ट की थी कि रॉ में मुसलमानों को नौकरी नहीं देने की नीति चल रही है। रॉ के क़रीब 15 हज़ार कर्मचारियों में से कोई भी मुस्लिम नहीं था। समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने जब बारे में रिपोर्ट की तो उसने रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुलत से बात की, जिसमें दुलत ने कहा, “याद नहीं आता कि संगठन के अंदर कोई मुसलमान था।” उन्होंने ये भी कहा, “अगर हमारे पास कोई मुसलमान नहीं हैं तो इससे हमारी क्षमता ही प्रभावित होती हैं। अगर कोई मुसलमान नहीं है, तो निश्चित तौर पर उन्हें लेने के प्रति अनिच्छा का भाव रहा होगा। वैसे मुसलमानों को तलाशना भी आसान नहीं है।”

रॉ के एक अन्य पूर्व प्रमुख गिरीश चंद्रा सक्सेना ने कहा, “ख़ुफ़िया एजेंसियों में मुसलमान अधिकारियों की बहुत ज़रूरत है। कुछ ही लोग हैं जिन्हें उर्दू और अरबी की जानकारी है। इस समस्या को हल करने की ज़रूरत है।” अगर मुसलमान अधिकारियों की इतनी ज़रूरत है और इसे क्षमता पर असर पड़ता है, तो उन्हें नौकरी क्यों नहीं दी जा रही है? ये मैं नहीं जानता। मैं पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के कुछ पूर्व प्रमुखों से मिला हूं। उनमें से एक असद दुर्रानी भी हैं जिन्हें मैं कुछ सालों से जानता हूं क्योंकि हम दोनों एक ही अख़बार के लिए लिखते थे। कुछ समय पहले ही आईएसआई से मेरा साबका पड़ा था। मैं हड़प्पा गया हुआ था, जो लाहौर से कुछ ही घंटे की दूरी पर है। मैं वहां सिंधु घाटी सभ्यता को देखने गया हुआ था, जिसे काफ़ी सुंदरता से संरक्षित किया गया था। मैं पहली बार वहां कई साल पहले गया था। जब मैं टिकट काउंटर पर गया था, तो मुझे विदेशी लोगों वाला टिकट दिया गया, यह टिकट स्थानीय लोगों को दिए जाने वाले टिकट से काफी महंगा था।

भारत और पाकिस्तान, दोनों ही देशों की खुफिया एजेंसियों से आकार पटेल का साबका पड़ा है। मैंने पूछा कि उन्हें कैसे पता चला मैं स्थानीय नहीं हूं। तब उसने बताया, “यहां पाकिस्तानी नहीं आते।”
इस बार जब मैं टिकट काउंटर गया, तो मुझे स्थानीय लोगों वाला टिकट दिया गया। मैंने भी नहीं बताया कि मैं भारतीय हूं। कंप्लैक्स के अंदर सलवार कमीज़ पहने हुए एक आदमी आया और उसने पूछा कि आप लोग कहां से आए हैं। हमने कहा, “लाहौर से।” वह चला गया। मेरे गाइड ने बताया कि इस क्षेत्र में आने वाले हर विदेशी का रिकॉर्ड आईएसआई रखती है। जब हम वहां से निकलने लगे, तो वह आदमी दोबारा आया और हमसे कहा कि राष्ट्रीय पहचान पत्र दिखाइए, जो हर पाकिस्तानी अपने साथ रखते हैं। हम पकड़े गए और हमें आईएसआई के दफ़्तर ले जाया गया, जो वहां कंप्लैक्स के अंदर ही स्थित है। वहां हमारे पासपोर्ट का विवरण नोट किया गया। हमें गोलमाल जवाब देने के लिए डांटा भी गया। हमें कहा गया, “क्या आप जानते हैं कि विदेशियों के लिए यहां कितना ख़तरा है?” मैंने पहले ही बताया कि रॉ एजेंट राजनयिक पासपोर्टों के साथ यात्रा करते हैं। रॉ के साथ मेरा अनुभव अक्टूबर, 2001 का है, तब मैं अफ़ग़ानिस्तान युद्ध को कवर करने गया हुआ था। हमें उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान के रास्ते जाना पड़ा था और हमें दुशांबे में अगले काफ़िले के लिए इंतज़ार करना पड़ा।
मैं होटल में दो भारतीयों से मिला था, जो सूट और टाई पहने हुए थे। वे हर सुबह नाश्ते पर दिखाई देते हैं और शाम में बार में नज़र आते हैं। हम सब दुनिया भर से आए रिर्पोटर थे लेकिन वे दोनों एकदम अलग थे। जब हमारा काफ़िला ताजिकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर पहुंचा, तब हमारे पासपोर्ट रूसी सैनिकों ने चेक किए थे। सभी रिपोर्टरों को जाने दिया गया लेकिन रूसी सैनिकों ने उन दोनों भारतीयों को दुशांबे भेज दिया था। मैं दो सप्ताह बाद वापस लौटा, मेरा असाइनमेंट पूरा हो गया था। तब मैं एक नदी को पार करते वक्त घोड़े से गिर गया और मेरे पासपोर्ट पर लगी वीजा की मुहर थोड़ी धुंधली हो गई थी। इससे मैं चिंतित हो गया था। होटल में, मुझे उज़्बेकिस्तान ले जाने वाली टैक्सी ख़राब हो गई और मैं अपना बैग पीठ पर टांगे हुए खड़ा था, तभी मैंने उन दोनों भारतीयों को देखा। उनमें से एक ने मुझसे पूछा कि कहां जा रहे हो? तो उसने मुझे लिफ़्ट देने की पेशकश की। वे सफ़ेद मर्सिडीज बेंज़ में थे। सीमा पर मैंने पासपोर्ट निकाल उस पर मुहर लगवाई, जबकि वे दोनों आदमी कार में बैठे रहे। मैंने सीमा पर खड़े ऑफ़िसर को अपनी कहानी बतानी चाहिए तो उन्होंने कार में बैठे उन दोनों लोगों की तरफ़ देखा और मुझे जाने दिया। तब मुझे जाकर अहसास हुआ कि वे दोनों वास्तव में कौन थे। मुझे पता नहीं चला लेकिन रूसी सैनिक और उज़्बेक अफ़सर एक झलक में रॉ के एजेंटों को पहचान सकते थे।

आईबी आतंरिक ख़ुफ़िया एजेंसी है, जिसका काम भारतीयों पर नज़र रखना है। अगर आप और विनम्रता से कहना चाहते हैं तो ये एजेंसी भारत में होने वाली गतिविधियों पर नज़र रखती है। अगर डोभाल आईबी में थे तो वे पाकिस्तान में क्या कर रहे थे? वैसे भी इन दोनों ख़ुफ़िया एजेंसियों की गतिविधियों के बारे में हमें जो जानकारी है, वो सिर्फ़ अफ़वाहों से ही मिलती है, वो तथ्यों पर आधारित नहीं होती।
कई बार तो रॉ के प्रमुख को भी ये नहीं मालूम होता है कि एजेंसी के अंदर क्या चल रहा है। दस साल पहले, आउटलुक पत्रिका ने रिपोर्ट की थी कि रॉ में मुसलमानों को नौकरी नहीं देने की नीति चल रही है। रॉ के क़रीब 15 हज़ार कर्मचारियों में से कोई भी मुस्लिम नहीं था। समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने जब बारे में रिपोर्ट की तो उसने रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुलत से बात की, जिसमें दुलत ने कहा, “याद नहीं आता कि संगठन के अंदर कोई मुसलमान था।” उन्होंने ये भी कहा, “अगर हमारे पास कोई मुसलमान नहीं हैं तो इससे हमारी क्षमता ही प्रभावित होती हैं। अगर कोई मुसलमान नहीं है, तो निश्चित तौर पर उन्हें लेने के प्रति अनिच्छा का भाव रहा होगा। वैसे मुसलमानों को तलाशना भी आसान नहीं है।”

रॉ के एक अन्य पूर्व प्रमुख गिरीश चंद्रा सक्सेना ने कहा, “ख़ुफ़िया एजेंसियों में मुसलमान अधिकारियों की बहुत ज़रूरत है। कुछ ही लोग हैं जिन्हें उर्दू और अरबी की जानकारी है। इस समस्या को हल करने की ज़रूरत है।” अगर मुसलमान अधिकारियों की इतनी ज़रूरत है और इसे क्षमता पर असर पड़ता है, तो उन्हें नौकरी क्यों नहीं दी जा रही है? ये मैं नहीं जानता। मैं पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के कुछ पूर्व प्रमुखों से मिला हूं। उनमें से एक असद दुर्रानी भी हैं जिन्हें मैं कुछ सालों से जानता हूं क्योंकि हम दोनों एक ही अख़बार के लिए लिखते थे। कुछ समय पहले ही आईएसआई से मेरा साबका पड़ा था। मैं हड़प्पा गया हुआ था, जो लाहौर से कुछ ही घंटे की दूरी पर है। मैं वहां सिंधु घाटी सभ्यता को देखने गया हुआ था, जिसे काफ़ी सुंदरता से संरक्षित किया गया था। मैं पहली बार वहां कई साल पहले गया था। जब मैं टिकट काउंटर पर गया था, तो मुझे विदेशी लोगों वाला टिकट दिया गया, यह टिकट स्थानीय लोगों को दिए जाने वाले टिकट से काफी महंगा था।

भारत और पाकिस्तान, दोनों ही देशों की खुफिया एजेंसियों से आकार पटेल का साबका पड़ा है। मैंने पूछा कि उन्हें कैसे पता चला मैं स्थानीय नहीं हूं। तब उसने बताया, “यहां पाकिस्तानी नहीं आते।”
इस बार जब मैं टिकट काउंटर गया, तो मुझे स्थानीय लोगों वाला टिकट दिया गया। मैंने भी नहीं बताया कि मैं भारतीय हूं। कंप्लैक्स के अंदर सलवार कमीज़ पहने हुए एक आदमी आया और उसने पूछा कि आप लोग कहां से आए हैं। हमने कहा, “लाहौर से।” वह चला गया। मेरे गाइड ने बताया कि इस क्षेत्र में आने वाले हर विदेशी का रिकॉर्ड आईएसआई रखती है। जब हम वहां से निकलने लगे, तो वह आदमी दोबारा आया और हमसे कहा कि राष्ट्रीय पहचान पत्र दिखाइए, जो हर पाकिस्तानी अपने साथ रखते हैं। हम पकड़े गए और हमें आईएसआई के दफ़्तर ले जाया गया, जो वहां कंप्लैक्स के अंदर ही स्थित है। वहां हमारे पासपोर्ट का विवरण नोट किया गया। हमें गोलमाल जवाब देने के लिए डांटा भी गया। हमें कहा गया, “क्या आप जानते हैं कि विदेशियों के लिए यहां कितना ख़तरा है?” मैंने पहले ही बताया कि रॉ एजेंट राजनयिक पासपोर्टों के साथ यात्रा करते हैं। रॉ के साथ मेरा अनुभव अक्टूबर, 2001 का है, तब मैं अफ़ग़ानिस्तान युद्ध को कवर करने गया हुआ था। हमें उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान के रास्ते जाना पड़ा था और हमें दुशांबे में अगले काफ़िले के लिए इंतज़ार करना पड़ा।
मैं होटल में दो भारतीयों से मिला था, जो सूट और टाई पहने हुए थे। वे हर सुबह नाश्ते पर दिखाई देते हैं और शाम में बार में नज़र आते हैं। हम सब दुनिया भर से आए रिर्पोटर थे लेकिन वे दोनों एकदम अलग थे। जब हमारा काफ़िला ताजिकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर पहुंचा, तब हमारे पासपोर्ट रूसी सैनिकों ने चेक किए थे। सभी रिपोर्टरों को जाने दिया गया लेकिन रूसी सैनिकों ने उन दोनों भारतीयों को दुशांबे भेज दिया था। मैं दो सप्ताह बाद वापस लौटा, मेरा असाइनमेंट पूरा हो गया था। तब मैं एक नदी को पार करते वक्त घोड़े से गिर गया और मेरे पासपोर्ट पर लगी वीजा की मुहर थोड़ी धुंधली हो गई थी। इससे मैं चिंतित हो गया था। होटल में, मुझे उज़्बेकिस्तान ले जाने वाली टैक्सी ख़राब हो गई और मैं अपना बैग पीठ पर टांगे हुए खड़ा था, तभी मैंने उन दोनों भारतीयों को देखा। उनमें से एक ने मुझसे पूछा कि कहां जा रहे हो? तो उसने मुझे लिफ़्ट देने की पेशकश की। वे सफ़ेद मर्सिडीज बेंज़ में थे। सीमा पर मैंने पासपोर्ट निकाल उस पर मुहर लगवाई, जबकि वे दोनों आदमी कार में बैठे रहे। मैंने सीमा पर खड़े ऑफ़िसर को अपनी कहानी बतानी चाहिए तो उन्होंने कार में बैठे उन दोनों लोगों की तरफ़ देखा और मुझे जाने दिया। तब मुझे जाकर अहसास हुआ कि वे दोनों वास्तव में कौन थे। मुझे पता नहीं चला लेकिन रूसी सैनिक और उज़्बेक अफ़सर एक झलक में रॉ के एजेंटों को पहचान सकते थे।
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